कबीर दास के दोहे अर्थ सहित
Sant Kabir ke Dohe Hindi Me
गुरु गोविंद दोउ खड़े, काके लागूं पाँय।
बलिहारी गुरु आपने, गोविंद दियो मिलाय॥
कबीरदास जी कहते हैं कि अगर हमारे सामने गुरु खड़े हैं और भगवान खडे़ है तो आप किसके चरण छुएंगे? गुरु के द्वारा दिए गए ज्ञान ने ही हमें ईश्वर से मिलने का रास्ता बताया है। गुरु की महिमा भगवान से भी ऊपर हैं। इसलिए हमें पहले गुरु के ही चरण स्पर्श करने चाहिए।
यह तन विष की बेलरी, गुरु अमृत की खान।
शीश दियो जो गुरु मिले, तो भी सस्ता जान॥
कबीरदास जी कहते हैं कि यह हमारा शरीर विष रूपी विभिन्न बुराइयों से भरा हुआ है। बुराइयों का खात्मा गुरु ज्ञान से ही कर सकते हैं। इसलिए अगर अपना शीश देने पर भी कोई सच्चा गुरु मिले तो भी यह सौदा सस्ता है।
ऐसी वाणी बोलिए मन का आप खोये।
औरन को शीतल करे, आपहुं शीतल होए॥
कबीरदास जी कहते हैं कि हमें ऐसी वाणी बोलनी चाहिए, जिससे खुद को भी अच्छी लगे और दूसरों को भी अच्छी लगे।
बड़ा भया तो क्या भया, जैसे पेड़ खजूर।
पंथी को छाया नहीं फल लागे अति दूर॥
कबीरदास जी कहते हैं कि जैसे खजूर का पेड़ बहुत बड़ा होता है उसकी छाया भी नहीं मिलती हैं और उसका फल भी बहुत दूर लगता है। हमें भी ऐसा नहीं बनना चाहिए कि हम किसी का भला नहीं कर पाए या हम किसी को मदद ना कर पाए।
निंदक नियेरे राखिये, आँगन कुटी छावायें ।
बिन पानी साबुन बिना, निर्मल करे सुहाए॥
कबीरदास जी कहते हैं कि अपनी आलोचना करने वालों को पास ही रखना चाहिए। क्योंकि वह अपने में कमियां बताते रहते हैं और आप उन कमियों को फिर आसानी से सुधार कर सकते हो। और इस तरह आप एक बेहतर इंसान बन पाओगे।
बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय ।
जो मन देखा आपना, मुझ से बुरा न कोय॥
कबीरदास जी कहते हैं कि मैं जिंदगी भर दूसरों में बुराइयां देखता रहा। लेकिन जब मैंने खुद में जाककर देखा तो मैंने पाया कि खुद में ढेर सारी बुराइयां भरी पड़ी है।
कहने का मतलब यह है कि हम चाहते हैं कि दुनिया अच्छी हो जाए। दुनिया से सब बुराई खत्म हो जाए। लेकिन हम शुरुआत खुद से नहीं करना चाहते। जिस दिन हमने खुद में सुधार करना शुरू कर दिया, दुनिया खुद ब खुद सही हो जाएगी।
दुःख में सुमिरन सब करे, सुख में करे न कोय।
जो सुख में सुमिरन करे, तो दुःख काहे को होय॥
कबीरदास जी कहते हैं कि दुख आने पर तो सब लोग भगवान को याद करते हैं। लेकिन सुख में कोई याद नहीं करता। अगर सुख में भी भगवान को याद करते रहोगे तो दुख कभी आएगा ही नहीं।
पानी केरा बुदबुदा, अस मानस की जात।
देखत ही छुप जाएगा है, ज्यों सारा परभात॥
कबीरदास जी कहते हैं कि पानी के बुलबुले की तरह मनुष्य जीवन भी क्षणभंगुर है। जिस प्रकार सुबह होने पर तारे छुप जाते हैं। उसी प्रकार एक दिन इस शरीर का भी अंत हो जाएगा।
चलती चक्की देख के, दिया कबीरा रोये।
दो पाटन के बीच में, साबुत बचा न कोए॥
जिस प्रकार चक्की के दो पाटों के बीच में कोई भी अनाज साबूत नहीं बचता है। ठीक उसी प्रकार जीवन और मृत्यु के बीच में कोई भी नहीं बचता है। सबको एक दिन जाना पड़ता है। लेकिन फिर भी लोग अंजान बने रहते हैं।
काल करे सो आज कर, आज करे सो अब।
पल में परलय होएगी, बहुरि करेगा कब॥
कबीरदास जी कहते हैं कि हमें आज का काम कल पर कभी नहीं छोड़ना चाहिए। क्योंकि समय किसी का इंतजार नहीं करता है वह तो हर पल निकलता रहता है। फिर अंत में पछताने के सिवा और कुछ हाथ नहीं लगेगा कि मेरे को यह भी करना था, मेरे को वह भी करना था।
ज्यों तिल माहि तेल है, ज्यों चकमक में आग।
तेरा साईं तुझ ही में है, जाग सके तो जाग॥
कबीरदास जी कहते हैं कि जैसे तिलों में तेल छुपा रहता है, जैसे चकमक में आग छुपी रहती हैं। उसी प्रकार अपने अंदर भी ईश्वर का वास हैं। हमें कहीं बाहर भटकने की जरूरत नहीं है। अगर आप ढूंढ सको तो ढूंढ लो।
जहाँ दया तहा धर्म है, जहाँ लोभ वहां पाप।
जहाँ क्रोध तहा काल है, जहाँ क्षमा वहां आप॥
कबीरदास जी कहते हैं कि जहां जहां दया होती है, वहां धर्म होता है। जहां लोभ होता है, वहां पाप होता है। जहां क्रोध होता है, वहां विनाश होता है। और जहां क्षमा भावना होती है, वहां स्वयं ईश्वर होते हैं।
जाती न पूछो साधू की, पूछ लीजिये ज्ञान।
मोल करो तलवार का, पड़ा रहने दो म्यान॥
कबीरदास जी कहते हैं कि जहां से भी ज्ञान मिले हमें ले लेना चाहिए। फालतू में जात-पात, ऊंच-नीच के चक्कर में नहीं पड़ना चाहिए। जब तलवार लेनी हैं तो म्यान का क्यों मोलभाव करना।
जग में बैरी कोई नहीं, जो मन शीतल होए।
यह आपा तो डाल दे, दया करे सब कोए॥
कबीरदास जी कहते हैं कि अगर आपका मन शीतल है, तो आपका कोई दुश्मन नहीं हो सकता।
तन को जोगी सब करे, मन को विरला कोय।
सहजे सब विधि पाइए, जो मन जोगी होए॥
कबीरदास जी कहते हैं कि लोग तन का मेल तो रगड़ रगड़ निकलते हैं, लेकिन मन के मैल को कोई नहीं निकलता। जिस इंसान ने अपने मन को साफ कर लिया वही वास्तव में महान है।
पाछे दिन पाछे गए हरी से किया न हेत।
अब पछताए होत क्या, चिडिया चुग गई खेत॥
कबीरदास जी कहते हैं कि समय रहते भगवान का अहसान जताओ। सब बातो के लिए धन्यवाद करो, उनके गुण गाओ। इन सब चीजों को आखिरी समय के लिए बचा कर मत रखो।
जब मैं था तब हरी नहीं, अब हरी है मैं नाही।
सब अँधियारा मिट गया, दीपक देखा माही॥
कबीरदास जी कहते हैं कि जब मैं अहंकार में था, तब मुझे भगवान नहीं दिखता था। लेकिन अब भगवान है, अहंकार कहीं भी नहीं है। जब मैंने गुरु रूपी दीपक को पाया है, तब से सारा अंधियारा मिट गया।
नहाये धोये क्या हुआ, जो मन मैल न जाए ।
मीन सदा जल में रहे, धोये बास न जाए
कबीरदास जी कहते हैं कि नहाए धोए लेकिन मन के मैल को साफ ना किया तो क्या फायदा। जिस प्रकार मछली सदा पानी में ही रहती है लेकिन उसमें बदबू तो आती ही रहती है।
पोथी पढ़ पढ़ जग मुआ, पंडित भया न कोय।
ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय॥
कबीरदास जी कहते हैं कि लोग बड़े-बड़े ग्रंथ पढ़कर भी विद्वान नहीं बन पाते हैं। लेकिन जिसने ढाई अक्षर प्रेम का समझ लिया, वहीं महान विद्वान है।
साईं इतना दीजिये, जामे कुटुंब समाये।
मैं भी भूखा न रहूँ, साधू न भूखा जाए॥
कबीरदास जी कहते हैं कि हे ईश्वर मेरे को इतना दीजिए, जिसमें मेरा परिवार अच्छे से खा सके। मैं भी भूखा ना रहूं और मेरे घर पर आने वाला कोई भी भूखा ना जाए।
माखी गुड में गडी रहे, पंख रहे लिपटाए।
हाथ मेल और सर धुनें, लालच बुरी बलाय॥
कबीरदास जी कहते हैं कि गुड पर बैठी मक्खी पहले अपने पंख और मुंह को गुड पर चिपका लेती हैं। लेकिन जब वह उड़ नहीं पाती हैं तो फिर पछताती हैं। ठीक इसी प्रकार मनुष्य भी सांसारिक सुखों मैं लिप्त रहता है और अंत समय में पछतावा करता है।
रात गंवाई सोय के, दिवस गंवाया खाय।
हीरा जन्म अमोल सा, कोड़ी बदले जाय॥
कबीरदास जी कहते हैं कि मनुष्य जीवन को फालतू के कामों में बर्बाद करता रहता है। अपने अनमोल मनुष्य जीवन को कौड़ियों के भाव में सौदा कर रहे हैं।
कागा का को धन हरे, कोयल का को देय।
मीठे वचन सुना के, जग अपना कर लेय॥
कबीरदास जी कहते हैं कि कौवा किसी का धन नहीं चुराता है, फिर भी लोगों को वह पसंद नहीं और कोयल किसी को धन नहीं देती है फिर भी वह सबको पसंद है। यह फर्क सिर्फ बोली का है। कोयल अपनी मीठी बोली से सबके मन को भा जाती हैं।
तिनका कबहुँ ना निंदये, जो पाँव तले होय।
कबहुँ उड़ आँखो पड़े, पीर घानेरी होय॥
कबीरदास जी कहते हैं कि पांव के नीचे पड़े हुए तीनके की कभी निंदा मत कीजिए। क्योंकि जब वो आंख में चले जाते हैं तो बहुत दर्द देते हैं। ठीक उसी प्रकार कमजोर और गरीब लोगों की निंदा नहीं करनी चाहिए। क्योंकि समय बड़ा बलवान है। कोई भी कहीं भी पहुंच सकता है।
धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय।
माली सींचे सौ घड़ा, ॠतु आए फल होय॥
कबीरदास जी कहते हैं कि मनुष्य को धैर्य रखना चाहिए। क्योंकि जिस प्रकार एक पौधे को माली बहुत दिनों तक पानी देता रहता है लेकिन उस पर फल ऋतु आने पर ही लगते हैं।
कबीरा जब हम पैदा हुए, जग हँसे हम रोये।
ऐसी करनी कर चलो, हम हँसे जग रोये॥
कबीरदास जी कहते हैं कि जब हम पैदा हुए थे सारा जगत हंस रहा था लेकिन हम रो रहे थे। लेकिन ऐसा जीवन जियो, ऐसे काम करके जाओ कि जाते समय हम हंसे और पूरी दुनिया रोए।
जिन खोजा तिन पाइया, गहरे पानी पैठ।
मैं बपुरा बूडन डरा, रहा किनारे बैठ॥
कबीरदास जी कहते हैं कि जो लोग निरंतर प्रयास करते रहते हैं, कड़ी मेहनत करते रहते हैं, वो बहुत कुछ पाने में सफल रहते हैं। क्योंकि जो गोताखोर गहरे पानी में जाते हैं, वो कुछ ना कुछ लेकर आते हैं लेकिन किनारे पर बैठे हुए के हाथ कुछ नहीं लगता है।
बोली एक अनमोल है, जो कोई बोलै जानि।
हिये तराजू तौलि के, तब मुख बाहर आनि॥
कबीरदास जी कहते हैं कि हमारे बोली अनमोल है। इसलिए इसे सोच समझकर ही काम में लेंनी चाहिए।
अति का भला न बोलना, अति की भली न चूप।
अति का भला न बरसना, अति की भली न धूप॥
कबीरदास जी कहते हैं कि ज्यादा बोलना भी अच्छा नहीं है और ज्यादा चुप रहना भी अच्छा नहीं है। जैसे ज्यादा बारिश से भी फसलें खराब हो जाती है और ज्यादा धूप से भी।
हिन्दू कहें मोहि राम पियारा, तुर्क कहें रहमाना।
आपस में दोउ लड़ी-लड़ी मुए, मरम न कोउ जाना॥
हिंदू कहते हैं कि मुझे राम प्यारा है। मुसलमान कहते कि मुझे रहमान प्यारा है। दोनों मूर्ख लोग राम रहीम के चक्कर में आपस में लड़ मरते हैं। लेकिन सत्य कोई नहीं जान पाया है
दुर्लभ मानुष जन्म है, देह न बारम्बार।
तरुवर ज्यों पत्ता झड़े, बहुरि न लागे डार॥
कबीरदास जी कहते हैं कि हमें जो मनुष्य चुनाव मिला है वह बहुत ही दुर्लभ है यह बार-बार नहीं मिलता है। जिस प्रकार पेड़ से पत्ता टूटने पर वह वापस उस जगह नहीं लग सकता।
माला फेरत जुग भया, फिरा न मन का फेर।
कर का मनका डार दे, मन का मनका फेर॥
लोग माला तो फेरते रहते हैं, लेकिन अपने मन को नहीं बदलते हैं, उसका मन अशांत रहता है। तो कबीर जी यह कहना चाहते हैं कि माला फेरना छोड़कर अपने मन को शांत और स्वस्थ करो।
दोस पराए देखि करि, चला हसन्त हसन्त।
अपने याद न आवई, जिनका आदि न अंत॥
कबीर दास जी कहते हैं कि मनुष्य का यह स्वभाव है कि वह दूसरों के दोष को देख कर हंसता है लेकिन उससे खुद के दोष नजर नहीं आते हैं जिनका कोई आदि अंत नहीं है।
कबीर तन पंछी भया, जहां मन तहां उडी जाइ।
जो जैसी संगती कर, सो तैसा ही फल पाइ॥
कबीर दास जी कहते हैं कि मानव शरीर पंछी की तरह है। जहां उसका मन जाता है, वहां उड़ के चला जाता है। जिसकी जैसी संगति होती हैं, उसे वैसा ही फल मिलता है।
बिन रखवाले बाहिरा चिड़िये खाया खेत।
आधा परधा ऊबरै, चेती सकै तो चेत॥
कबीर दास जी कहते हैं कि अपने जीवन में कुछ गलतियों के कारण नुकसान हो जाता है। लेकिन अभी भी सब कुछ खत्म नहीं हुआ है। सावधानी और समझदारी से सब कुछ सही किया जा सकता है।
मूरख संग न कीजिए ,लोहा जल न तिराई।
कदली सीप भावनग मुख, एक बूँद तिहूँ भाई॥
कबीर दास जी कहते हैं कि मूर्खों की संगत नहीं करनी चाहिए। क्योंकि वह हमें भी उस लेवल तक ले आएंगे। जिस प्रकार पानी की एक बूंद अगर केले के पत्ते पर गिरे तो कपूर, सीप में गिरे तो मोती, और सांप के मुंह में गिरे तो जहर बन जाती है।
कबीर संगति साध की , कड़े न निर्फल होई।
चन्दन होसी बावना , नीब न कहसी कोई॥
कबीर दास जी कहते हैं कि अच्छे लोगों की संगत कभी भी नुकसान नहीं करती है। क्योंकि चंदन का वृक्ष चाहे कितना ही छोटा क्यों ना हो वह नीम का नहीं कहलाएगा। उससे अच्छी खुशबू ही आएगी और वह आसपास के वातावरण को भी सुवासित कर देगा।
मन के हारे हार है मन के जीते जीत।
कहे कबीर हरि पाइए मन ही की परतीत॥
कबीर दास जी कहते हैं कि अगर आपने मन में हार मान ली तो आप हार चुके हैं, जब आपने मन में ही जीतने की ठान ली तो आप विजेता बन जाएंगे। इसी प्रकार हम ईश्वर को भी अपने विश्वास के दम पर पा सकते हैं। अगर विश्वास ही नहीं तो फिर कैसे पाएंगे।
धर्म किये धन ना घटे, नदी न घट्ट नीर।
अपनी आखों देखिले, यों कथि कहहिं कबीर॥
कबीर दास जी कहते हैं कि दान, परोपकार, सेवा करने से कभी धन घटता नहीं है। जिस प्रकार एक नदी सदैव बहती रहती है लेकिन उसका जल घटता नहीं है। एक बार आप खुद करके देखिए।
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